जीते जी अंतिम संस्कार- पुरवाई संपादकीय पर

0
जीते जी अंतिम संस्कार

कुछ पढ़ा, कुछ गुना :शीर्षक के अंतर्गत अटूट बंधन में उन लेखों कहानियों पर विस्तार से बात रखी जाएगी जो कहीं न कहीं पढ़ें हैं l

आज के अंक   लंदन से प्रकाशित पुरवाई पत्रिका का आ. तेजेंद्र शर्मा जी का संपादकीय, “किराये पर परिवार” पर टिप्पणी l संपादकीय आप यहाँ  से पढ़ सकते हैं l

लंदन से प्रकाशित पुरवाई पत्रिका में आदरणीय तेजेन्द्र शर्मा जी के संपादकीय “जीते जी अंतिम संस्कार” पर विचार
एक बार और मिलने के बाद भी
एक बार और मिलने की इच्छा
पृथ्वी पर कभी ख़त्म नहीं होगी
आलोक धन्वा
अभी कुछ दिन पहले लंदन से प्रकाशित पत्रिका ‘पुरवाई’ का तेजेन्द्र शर्मा सर का संपादकीय “जीते जी अंतिम संस्कार” पढ़ा था l यह एक अलग तरह की व्यवस्था के बारे में है,जहाँ लोग आगे आकर अपना ‘लिविंग फ़्यूनरल’ करवाने का निर्णय ले रहे हैं l जैसे-जैसे ये निर्णय विस्तार ले रहा है, वैसे-वैसे ही पारंपरिक फ़्यूनरल एजेंट भी ‘लिविंग फ़्यूनरल’ की सेवा अपने मीनू कार्ड में शामिल करने लगे हैं। ये ‘लिविंग फ़्यूनरल’ बिना लाश के होते हैं। लाश का चर्च में होना आवश्यक नहीं। इन्सान चाहे तो स्वयं उपस्थित भी रह सकता है या फिर घर से ज़ूम इत्यादि पर शामिल हो सकता है।
संपादकीय के अनुसार दक्षिण कोरिया की राजधानी सियोल में ह्योवोन हीलिंग नामक सेंटर है जो फ्यूनरल सर्विस नामक कंपनी की वित्तीय मदद से इच्छुक व्यक्तियों का नकली अंतिम संस्कार से संबंधित कार्यक्रम का आयोजन करता है। बताया जाता है कि अब तक हजारों लोग इस प्रकार अपना अंतिम संस्कार करवा चुके हैं। एक नए विषय पर अनोखा संपादकीय, जिसे पढ़ते समय निराशा, अवसाद, अकेला पन जैसे कई शब्द मन में किसी सितार से बजते रहे l चिंतन-मनन काफी समय तक चलता रहा l तेजेन्द्र शर्मा सर की एक कहानी से लंदन में अपनी कब्र की प्री बुकिंग के बारे में पता चला था, अभी कुछ दिन पहले भारत में भी अकेले रहने वाले लोगों के लिए अंतिम यात्रा बुकिंग जैसी किसी योजना के बारे में पढ़ा तो लगा हम कितने अकेले होते जा रहे हैं l रिश्तों में जीते हुए भी चार कंधे अंतिम समय में नसीब हों, इसकी भी गारंटी नहीं है l
मृत्यु जीवन का अंतिम सत्य है और कितनी बार हम यूँही कह देते हैं कि इससे तो अच्छा मर जाते, परंतु जिंदगी भर मृत्यु के भय से ग्रस्त रहते हैं l आध्यात्मिक राह में दैहिक मृत्यु मान ली जाती है, खाते-पीते, सोते जागते देह से परे l अपनी मृत्यु का अभिनय करने वाले कई कलाकारों ने ये बात कही है कि खुद की मृत्यु के अभिनय के बाद ‘जीवन के महत्व’ का एहसास हुआ l कई बार जो व्यक्ति आत्महत्या को आतुर होता है वो अपने जाने के बाद परिजनों का विलाप देख ले तो उसे अपने कृत्य पर पछतावा होगा l
इस काल्पनिक मृत्यु पर आने वाले परिजन कैसे साहस जुटाते होंगे ये भी गौर करने लायक है l क्या ये दो देशों की संस्कृतियों का अंतर है ? लेकिन बहुत पहले हमारे देश में भी तीर्थ यात्रा पर जाते हुए लोग पिंड दान कर देते थे, क्योंकि लौट कर आने की संभावना कम होती थी l फिर भी वास्तविकता में अंतर होता ही है l निजी अनुभव से कहूँ तो अपने प्रिय लोगों को कुछ दिन की जद्दो-जहद के बाद दुनिया से विदा होते देखा है l उस समय यही जाना कि जाते हुए प्राणी की प्रशंसा, अपना दुख, उसके प्रति प्रेम जैसी कोई बात नहीं करनी है, हो सके तो उसे मोह से मुक्त कर उसकी अंतिम यात्रा को आसान बनाना हैl कठिन है, पर वास्तविक प्रेम में ये करना पड़ता है l प्रेम स्वयं से ज्यादा दूसरे की फिक्र का नाम है l वहीं ये भी जरूर कहूँगी अवसाद से लड़ने, अतीत को भूल कर नई शुरुआत करने या गंभीर रोगियों को मृत्यु भय से आजाद करने में संभवतः कुछ सहायक हो l कुछ कहना सुनना अनकहा नया रह जाए, जो बाद की गहन पीड़ा की अनुभूति बनता है l
परंतु जैसा की संपादकीय में लिखा है कि “पारंपरिक फ़्यूनरल एजेंट भी ‘लिविंग फ़्यूनरल’ की सेवा अपने मीनू कार्ड में शामिल करने लगे हैं” तो इसके बाजार के हाथों पड़ने की पूरी संभावना लगती है l जैसा की बाजार हर सार्थक प्रयास के लिए करता हैl “जीवन का जश्न” मृत्यु का अनुभव कर भय से मुक्ति या जीवन की गहन समझ के लिए होने के स्थान पर एक ‘नया अनुभव’ ले कर पार्टी करने की ओर बढ़ जाने का खतरा भी है l
जो भी हो एक अकेलापन, अवसाद, मृत्यु जैसे गंभीर विषय पर जानकारीयुक्त, सुचिंतित संपादकीय के लिए बहुत बधाई
वंदना बाजपेयी
आपको लेख “जीते जी अंतिम संस्कार- पुरवाई संपादकीय पर” पर विचर कैसे लगे ? अपनी राय से हमें अवश्य परिचित कराए l अगर आपको अटूट बंधन कि रचनाएँ अच्छी लगती हैं तो हमें सुबसक्रीब करें और अटूट बंधन फेसबूक पेज को लाइक करें l

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here