चन्द्र गुप्त की लम्बी कविता …………… आहटें

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 आहटें 


सन्नाटे की ………वह खौफनाक
रेंगती
अभी भी चली आती हैं
सन ४५ के
आणविक मौत की बारिश के बाद
बेआवाज़
तड़पते
निरीह बच्चे
महिलाएं
पुरुष
मौत को तरसते
लाखों लोग
चुपचाप
जो परमाणु में बिखरे पड़े हैं
हमें घेरे
चीखे
गूँजी थी जो उनके ह्रदय से
कूट सन्नाटे में से चीत्कारती
अति भयावाह
मौत निगलते
लाखों लोगों की
हरपल
दबे पाँव
२ ……….
खबरे
जिन्दा अभी तक
मृत अख़बारों में
बोलती है आपबीती
इनके -उनके
जवान होते
पंगु बच्चों में
वह सन्नाटा -प्रलयंकारी
सन्नाटे  में बेचैन आहटे
आहटों में दबी चीखे
चीखों में उबला लहू
सुर्ख स्याह
सन्नाटा
वह सन ४५ का

३ ……….
किससे पूँछोंगे
कैसे पूँछोंगे
मित्र
और क्यों
ये
कई बार दुनिया
खत्म  करने का तर्क
स्वयं से मेरे मेरे मित्र
या उनसे
जो राजनीति कूटनीति  विज्ञ
महामना -व्हाइट हॉउस
या सोसलिस्ट -क्रेमलिन दुर्ग
कितनी बार
दुनियां को खटन करने का तर्क
खत्म हो जाए
दुनियाँ , जब एक बार में
कुछ मुट्ठी भर
अणुओं -परमाणुओ के उत्खलन से
क्यों है जरूरी
खत्म करना दूनियाँ
कई बार
एक बार के बाद
किससे  पूँछोंगे
कैसे पूँछोंगे
मित्र
शायद
राजनीति -कूटनीति की किताबों पर चल
गट निर्गुट सम्मेलनों की दीवार पर चढ़
या खड़े हो
संयुक्त राष्ट्र की प्राचीरों पर
विस्फोट की दुनियाँ
इतनी बार
एक परमाणु अस्त्र में ही जब
सिमिट सकती है
पूरी  दुनियाँ
तुम्हारी -मेरी
छोटी सी दुनियां
मानव का
अपनी धरती पर
अपने हाथों
मानव स्खलन
बेवजह हो जाए
ये दुनियाँ भस्म
लोग
अपांग ,अधडंग
बचे जो कुछ
लाइलाज रोगी कोढ़ी
मौत को तरसते
बांटते -छोड़ते
अपने बच्चों में
आने वाले
उनके बच्चों में
और फिर
उनके और उनके बच्चों में
सदा निरंतर

४……….
ठहरो
रुको
जरा सोचो
देखो
सुनाई दें रही है
चीखे पुकारे
दर भरी चीत्कार
कोने कोने से
असंख्य ,अनगिनत
ढेरों मृत ,अपंग
अजीवित होने को
किसी भी क्षण
किसी भी पल
हमारे अपनों द्वारा
हमारे ही प्रति
संभावित
उस
आणविक -विभीषिका के
विस्फोट से डरी

चन्द्र गुप्त
साहित्यकार ,पत्रकार

चित्र गूगल से साभार

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