हाँ, उस युग का वासी हूँ मैं

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हाँ,  उस युग का वासी हूँ मैं




व्यंग्यलेख
अशोक परूथीमतवाला

मेरे युग में, {व्हट्सअप ओर सोशल मिडिया के जन्म से पहले), भी खबरें वेरी फ़ास्टमिलती और पहुँचती थी. अंतर
बस इतना है कि उस समय जीवन और लोग दोनों बड़े साधारण
, सरल-से और खुश-मिजाज़ हुआ करते थे. जनसंचार सुविधा के कोई
बिल-विल नहीं होते थे. अब तो किसी
के पास अपने मरने का भी समय नहीं है. जिन्दगी और
जिन्दगी के मसले जटिल हो गये हैं.
दूसरों की कुछ मदद करने की तो आप बात ही न छेड़े. ऐसा
करना
, मधुमखियों
के छते को
छेड़ने जैसी बात ही होगी. आज लोग और जिंदगियां व्यस्त ही नही बल्कि बहुत ही
अस्त-व्यस्त
भी हैं! है,ना? सहमत
हो तो अपने हाथ खड़े करो या फिर अपना सर ऊपर-नीचे करके मेरे
साथ अपनी सहमती दर्शाओ, बस,इतना करने का तो आपका
कर्तव्य बनता ही है !
सरला, भैन जी, मेरा दिल ते बड़ा करदा कि तुहानू मिलन आवां पर कि करां मरनेजोगी, हब्बे-मोई फेसबुक ते व्हट्सअप तू
व्हेल ही नहीं मिलदा!


हालाँकि, उन दिनों जन-संचार के गिने चुने ही साधन होते थे. जैसे, गाँव का नाई, मोहल्ले की पंडिताइन (जो
जलती दोपहरी में भी बिना नागा किये घर से हंदा लेने आती
थी और यह बता जाती कि कब
संग्रांद है या पूर्णमासी होगी
, या फलां फलां के बेटे की कब शादी है या मोहल्ले में किसकी बिटिया के पाँव
भारी हो गये है – सब की सब सूचना
रूंगे में घर बैठे-बिठाये मिलती थी, मुफ्त, बिलकुल मुफ्त). दूर-दराज़
की ख़बरों के
लिये पास के गाँव में बसी फूफो सुमित्रा होती थी जो मिलने समय–असमय घर पर
आती-जाती
रहती थी. इस सब के ईलावा ख़बरों का एक अन्य साधन भी होता था – रेडियो.

उन दिनों रेडियो तो आम थे, मगर ट्रांसिस्टर (बैटरी
वाले चलते-फिरते) विरले-विरले के पास ही होते थे! दादी
मां का कहना था डिब्बे में
भूत बंद है जो गाने गाता है और आवाजे बदल बदलकर बोलता
है (विभिन्न कार्यक्रम पेश
करने वाले)

गुल्ली-डंडा या क्रिकेट लडको के, स्टापू या रस्सी -टपना
लड़कियों के और लूकन-मिटी
(हाईड एंड सीक) दोनों के सांझे गेमहुआ करते थे!
गर्मियों में तंदूर की गर्मा-गर्म रोटी और लस्सी के बड़े
गिलास का अपना ही लुत्फ़
होता था. पंखे और वातानुकूलित कमरों के न होने का कोई गिला नहीं करता था.
अपने घर
की ड्योढी या घने पीपल पेड़ तले ही निंदिया रानी आ जाती थी और अपने आगोश
में ले
लेती थी!

चौमासे में कभी जब बारिश की झाड़ी लगी होती थी तो तले हुये
पकोड़े या फिर बेसन के
पूड़े महबूब की तरह प्रिय हुआ करते थे. फिर सर्दियां जब आती थी तो मक्की की
रोटी और
सरसों का साग या फिर मक्खन के पेड़े के साथ उंगलियाँ चाटने का भी अपना ही
मज़ा होता
था. सोने के समय ठंडी रजाई में, सिरहानो के साथ ऐसे लिपटते थे जैसे शादी की पहली रात नई-नवेली
दुल्हन संग हो!

पुरुषों के लिये कीकर, नीम और महिलाओं के लिये रंगीले दातुन आम हुआ करते
थे जिससे
हम-सब अनार के दानो की तरह अपने दांतों को चमकाते थे, दांतों के डाक्टर और टूथपेस्ट कहाँ
होते थे
, उन
दिनों
?
घर के काम – रोटी पकाना, कपडे धोना, बर्तन मांजना, कढ़ाई -सिलाई करना और घर में चक्की -चलाकर जो अनाज या
आते पीसे जाते थे
, उसी से लड़कियों का स्वास्थ्य बरक़रार और चेहरा खूबसूरत रहता था, उन दिनों स्लिमिंग सेंटर
या
जिमभला कहाँ होते थे. यह नहीं खाना, वह नहीं खाना के कब टंटे
होते थे
, एक
बार तो पहले खा लेते थे
, बाद में ही जो भी होता था उससे निपटते थे लेकिन,आज हम सब लेबल
पढ-पढ़कर ही परेशान और हैरान हैं.
अम्मी जान इतनी निपुण होती थी कि घर में ही बड़े भाईयों की
फटी-पुरानी पेंटो को
काट-छांट कर मेरी नयी पेंटे और निक्करें तैयार कर लेती थी. याद है, ऐसी भी पेंटे खुशी-खुशी डाली
जिसमे नाला होता था और
फ्लाईहोती थी!

स्वेटर का डिजाइन तो अम्मी-जान बस में सफ़र करते हुये या
स्कूल में बच्चों को पढाते
हुये ही डाल लेती थी.
और हैं, गली के कोने पर भट्टी वाली और तंदूर वाली एक ‘एक्स्ट्रा’ मासी हुआ करती थी जो पंक्ति काट कर
पहले दाने भून देती थी या फिर चपातियां लगा देती थी.

हाँ, मैं बहुत पुराना हूँ, हाँ मैं उसी युग का हूँ, जब यह सब चीज़े होती थी. हाँ,
वह युग जिसमे भाई-बहिन, मां-बाप, गली-मोहल्ले वाले सब, अपने होते थे, लोग कितने इश्वर के शुक्रे (शुक्रगुज़ार) होते थे.
हाँ, कोई लौटा दे मुझे – मेरी वो गलियां, मेरा मोहल्ला, मेरा गाँव, मेरा बचपना और मेरे वो दिन!

लेखक
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